गुरुवार, दिसंबर 29, 2011

कर दो जहाँ में ऐसा कुछ कमाल दोस्तों..

लो आ गया है फिर से नया साल दोस्तों,
धरती पे लिख दो आसमां का हाल दोस्तों,
ठहरा रहे ये वक्त हमेशा इसी तरह,
कर दो जहाँ में ऐसा कुछ कमाल दोस्तों..- अतुल

वक्त की शाख से ग्यारह का पत्ता टूट कर गिर रहा है। कलेवर बदलेगा या नहीं क्या पता मगर कैलेंडर तो बदलेगा ही। दो हजार ग्यारह के पहले सूरज को देखकर किसने सोचा होगा कि वक्त इतना बेरहम होगा कि अर्थव्यवस्थायें, संस्थायें, साख और लोग ...बस घाव गिनते रह जाएंगे। काल का गाल बड़ा विकराल है और समय की अपनी एक निपट अबूझ, अप्रत्याशित और शाश्‍वत गति है। इसलिए तारीख बदलने से अतीत कभी नहीं मरता। वह तो वर्तमान के तलवे में कांटे की तरह धंसा है। ग्यारह की चोटों से बारह जरुर लंगड़ायेगा। मगर  भरोसा रखिये, यही वक्त उन चोटों पर मरहम भी लगायेगा।, वक्त सौ मुंसिफों का मुंसिफ है, वक्त आएगा इंतजार करो।।, वक्त की बेरहमी को याद करने के लिए और उम्मीद के मरहम तलाशने के लिए आपके सामने एक श्रंखला लेकर जल्द आ रहा हूँ.. , आप सब अपने अपने स्नेह और आशीष से ''अतुल'' को पोसते रहे हैं। आशीर्वाद बनाये रखियेगा। बड़ा संबल मिलता है। निराला जी ने लिखा है ... पुन: सवेरा एक बार फेरा है जी का... वक्त का फेरा बारह का सवेरा लेकर दरवाजे पर पहुंचा है। दरवाजा खोलिये! स्वागत करिये!, 2012 सुखद, सुरक्षित और मांगलिक हो।

मंगलवार, नवंबर 29, 2011

बदनाम शोहरत की तरह हूं मैं..

 कभी धड़कन, कभी मासूम चाहत की तरह हूं मैं,
मुझे दिल में जरा रख लो मोहब्बत की तरह हूं मैं।

मेरा घर आएगा तो घर भी जाऊंगा अभी लेकिन,
हवा के डाकिए के हाथ में खत की तरह हूं मैं।

वो मेरे वास्ते दीवार बनते हैं तो बनने दो,
कि पहले से ही हर दीवार पर छत की तरह हूं मैं।

‘अतुल’ अब क्या मिटा पाएगी मेरा नाम ये दुनिया,
जमाने भर में जब बदनाम शोहरत की तरह हूं मैं।
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जिसने मेरा निकाह कराया परी के साथ,
वीवी हुई फरार उसी मौलवी के साथ।
मैंने दिया जवाब हुआ मौलवी भी चित,
तू मेरी वी के साथ, मैं तेरी वी के साथ।।
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मोहब्बत में बुरी नीयत से कुछ देखा नहीं जाता,
कहा जाता है उसे बेवफा समझा नहीं जाता।।


बुधवार, नवंबर 09, 2011

तूफान जा रहे थे उनके साथ नाव में..

  मैं जिस राह से जाऊं वो ही तेरा भी रस्ता हो,
सुनाई दे मुझे हरपल जो दिल तेरा धड़कता हो।
मेरे हमराह बस मेरी यही छोटी सी ख्वाहिश है,
तेरी बाहों में दम निकले, कफन तेरा दुपट्टा हो।। - अतुल

  गजल के चाहने वालों को अतुल का नमस्कार।। कई बार ऐसा होता है कि राह चलते कोई दिख जाता है तो घर तक उसकी यादें या कई-कई दिन तक साथ रहती हैं। ऐसी अतीत की तमाम स्मृतियां हमारे साथ भी जुड़ी हैं। एक सुहानी शाम याद है मुझे। मुंबई के जुहू बीच और सामने साहिल से टकराती समंदर की लहरें। इसी बीच कोई सपना आया, और वो कुछ इस तरह। गजल के रूप में आपके सामने पेश कर रहा हूं। पसंद आए तो जरूर सूचित करना....
जब तक खड़ा रहा मैं दरख्तों कि छांव में,
था शोर इक अजीब सा साहिल के गांव में।

निकले उधर से जब वो समंदर ठहर गया,
तूफान जा रहे थे उनके साथ नाव में।

सूरत को क्या बयां करूं वो हुस्न नूर था,
नजरें थीं आसमान पर इतना गुरूर था,

पायल कि वो झनकार सुन रहा हूं आज तक,
कारीगरी थी ऐसी कोई उसके पांव में।

थे होंठ सुर्ख और बदन मरमरी सा था,
था रूप कोई अप्सरा का या परी का था,

जुल्फों में घटाएं थीं चेहरे पे धूप थी,
सूरज भी आ गया था आशिकी के दांव में।।- अतुल

मंगलवार, नवंबर 08, 2011

किसी से दूर हैं हम भी...

- अतुल कुशवाह
उस खामोश बस्ती में कई तूफान रहते हैं,
मुरादें लाख पूरी हों, मगर अरमान रहते हैं.
फरिश्तों को बता दो अब गुरूरे-हुस्न मत करना,
इंसानों के वश में आजकल भगवान रहते हैं।।

जमाने में मोहब्बत के नशे में चूर हैं हम भी,
नाम बदनाम हो कितना मगर मशहूर हैं हम भी.
जमीं की याद में आंसू बहाते आसमां सुन लो,
जमीं से दूर गर तुम हो, किसी से दूर हैं हम भी।।

रविवार, अक्तूबर 30, 2011

रहता हूँ आजकल मैं मोहब्बत के शहर में.

- अतुल कुशवाह  
सन्देश बनके आया हूँ मैं ख़त के शहर में,
रहता हूँ आजकल मैं मोहब्बत के शहर में.

फूलों से जो निकली है वो खुशबू भी साथ है,
हूँ सादगी के साथ अदावत के शहर में.

हैं लोग सब अपने यहाँ कोई न पराया.
रहता है बनके सुख यहाँ दुःख-दर्द का साया,

हो यकीं गर ना तो खुद आकर के देख लो,
मौजों की रवानी है इस फुरसत के शहर में...

बुधवार, अक्तूबर 26, 2011

समझ ये क्यूँ नहीं आती..

दीपावली के मौके पर गजल के चाहने वालों को एक गजल बतौर तोहफा भेंट कर रहा हूँ....पसंद आये तो जरूर बताइयेगा...दीवाली की शुभकामनाएं..

है क्यूँ खामोश दरिया ये जो कल तक शोर करता था,
उदासी झील की शायद इसे देखी नहीं जाती.

तेरी खामोशियों के लफ्ज जब कानों में पड़ते हैं.
ये सांसें रोक लूं पर धडकनें रोकी नहीं जातीं.

अँधेरी रात से मिलना उजाले की भी ख्वाहिश है,
मगर किस्मत यहाँ ऐसी कभी शय ही नहीं लाती.

तमन्ना रह गई हर बार उसके पास जाने की,
कभी हम खुद नहीं जाते कभी वो ही नहीं आती.

मेरा जब नाम उसके लब को छूता है तो मत पूछो,
धडकता है ये दिल कब तक मुझे गिनती नहीं आती.

मोहब्बत में 'अतुल' तेरा यही अंजाम होना था,
वफ़ा मिलती नहीं सबको समझ ये क्यूँ नहीं आती..
                           - अतुल कुशवाह 

गुरुवार, सितंबर 29, 2011

जो मैंने की इबादत डूबकर उनकी तो हंगामा

मैं पाता हूँ तो हंगामा, मैं खोता हूँ तो हंगामा, 
किसी की वेबफाई में मैं रोता हूँ तो हंगामा
मैं आता हूँ तो हंगामा, मैं जाता हूँ तो हंगामा,
किसी को देख एक पल मुस्कुराता हूँ तो हंगामा.
.
यही तो एक दुनिया है, ख़्यालों की या ख़्वाबों की, 
मोहब्बत में उन्हें पाने कि कोशिश की तो हंगामा
सभी तालीम देते थे मोहब्बत ही इबादत है, 
जो मैंने की इबादत डूबकर उनकी तो हंगामा.
                                                        - Atul kushwah

मैं घर पानी के रहता हूँ..

मैं लेकर जिस्म मिटटी का, मैं घर पानी के रहता हूँ, 
मंजिल मौत है मेरी सफ़र हर रोज़ करता हूँ
क़त्ल होना है मेरा ये मुझे मालूम है लेकिन, 
नहीं मुझको खबर किसके निशाने में मैं रहता हूँ. - अतुल

सोमवार, सितंबर 12, 2011

जवानी को हमारी कर गया बर्बाद हंगामा

भ्रमर कोई कुमुदनी पर मचल बैठा तो हंगामा
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा
अभी तक डूबकर सुनते थे सब किस्सा मुहब्बत का
मैं किस्से को हकीकत में बदल बैठा तो हंगामा

कभी कोई जो खुलकर हंस लिया दो पल तो हंगामा
कोई ख़्वाबों में आकार बस लिया दो पल तो हंगामा
मैं उससे दूर था तो शोर था साजिश है , साजिश है
उसे बाहों में खुलकर कास लिया दो पल तो हंगामा

जब आता है जीवन में खयालातों का हंगामा
ये जज्बातों, मुलाकातों हंसी रातों का हंगामा
जवानी के क़यामत दौर में यह सोचते हैं सब
ये हंगामे की रातें हैं या है रातों का हंगामा

कलम को खून में खुद के डुबोता हूँ तो हंगामा
गिरेबां अपना आंसू में भिगोता हूँ तो हंगामा
नही मुझ पर भी जो खुद की खबर वो है जमाने पर
मैं हंसता हूँ तो हंगामा, मैं रोता हूँ तो हंगामा

इबारत से गुनाहों तक की मंजिल में है हंगामा
ज़रा-सी पी के आये बस तो महफ़िल में है हंगामा
कभी बचपन, जवानी और बुढापे में है हंगामा
जेहन में है कभी तो फिर कभी दिल में है हंगामा

हुए पैदा तो धरती पर हुआ आबाद हंगामा
जवानी को हमारी कर गया बर्बाद हंगामा
हमारे भाल पर तकदीर ने ये लिख दिया जैसे
हमारे सामने है और हमारे बाद हंगामा

डा. कुमार विश्वास

रविवार, सितंबर 11, 2011

हाँ ! इबादत-सी बन गया है तू ..

हाँ ! इबादत-सी बन गया है तू 
मेरी आदत-सी बन गया है तू

 सांस लूँ या कि नाम लूँ तेरा  
  इक ज़रुरत-सी बन गया है तू

 रूह को जो सुकून देती है
ऐसी राहत-सी बन गया है तू

 मांगती हूँ तुझे  दुआओं में 
मेरी हसरत-सी बन गया है तू  

 मुद्दतों बाद जो हुई मुझ पर
उस इनायत-सी बन गया है तू

 मिलती है जो बड़े मुक़द्दर से 
रब की रहमत-सी बन गया है तू

 तू सनम है कि है खुदा मेरा 
यूं अक़ीदत-सी बन गया है तू

 मैं "किरण" किस तरह कहूँ उस से 
जान-ओ-दौलत-सी बन गया है तू
********************** "कविता "किरण"

लाख बारिश हो गल नहीं सकता.....

लाख बारिश हो गल नहीं सकता
वो है पत्थर पिघल नहीं सकता

मुझसे कहता है मैं बदल जाऊं
खुद को लेकिन बदल नहीं सकता

मेरा चेहरा है रूह का चेहरा
 आइनों से बहल नहीं सकता

है तलब दिल को पूरे दरिया की 
देख क़तरा मचल नहीं सकता

दर्द ये तो बहुत है शर्मीला
दिल से बाहर निकल नहीं सकता

यूँ तो सहरा बहुत ही प्यासा  है
पर समंदर निगल नहीं सकता

गिर गया जो नज़र से अपनी ही
वो 'किरण' फिर संभल नहीं सकता- कविता'किरण'

गुरुवार, सितंबर 08, 2011

मोहब्बत से रिटायर हूँ

मैं ग़ालिब के ज़माने का अदद सा एक शायर हूँ.
प्रेम के गीत लिखता हूँ मोहब्बत से रिटायर हूँ.. - अतुल कुशवाह

बुधवार, जुलाई 20, 2011

पेश हैं अब तक के समाचार...

पेश हैं अब तक के समाचार...
राजधानी के कमबख्त
सदन में
आदमी के अंग बेचने का
विधेयक पास करके
सुहागरात पर टैक्स
लगाना चाहते हैं...
महिला आरक्षण पर
सरकार ने अपनी नीतियां
स्पष्ट करते हुए आज
एक प्रेस वार्ता में कहा- कि
विकास चाहने वाली औरतें
अपना जिस्म बेंचकर
पूर्ण विकास कर सकती हैं...
आज सदन की कार्यवाही के दौरान
देश में भूख से मरने वालों पर
चर्चा होते ही
पूरा सदन ठहाकों से गूंज उठा....
और अंत में मुख्य समाचार एक बार फिर....- अतुल कुशवाह

मंगलवार, जुलाई 19, 2011

''गाँधी'' तुम ग़लतफ़हमी में हो!

- अतुल कुशवाह 
''गांधी'' तुम्हारा अहिंसा का पाठ
कृष्ण अगर मानते-तो
महाभारत ही न हो पाती
और धर्म पर अधर्म की
विजय हो जाती
''गांधी'' तुम्हारी अहिंसा की बात पर
राम-अगर चलते-तो
युद्ध रोककर
सीता-रावण को ही सौंपकर
तसल्ली कर लेते....
''गांधी'' तुम्हारी गलतफहमी है- कि
तुम्हारा अहिंसा का पाठ
दुनिया में पढा जा रहा है
गांधी सच तो ये है कि 
तुम्हारा अहिंसा का प्रचार
सिर्फ वे लोग कर रहे हैं
जिन्हें खौफ है कि
भूखी-खूंख्वार भीड
बदले की गरज से
अपने हक के लिये कहीं एक दिन
उनकी देह पर आक्रमण न कर दे...

अम्मा! क्या मेरा ये सपना सच होगा...

- अतुल कुशवाह
अम्मा! कल भगत सिंह ने
चलती संसद में बम क्या फेंका-कि
माननीयों की लाशें इस कदर दिखीं-जैसे
अपनी तनख्वाह/भत्ता का
बढोत्तरी विधेयक की तरह
सारा पक्ष-विपक्ष
आपस में मिल गया हो...
किसी का पांव किसी के सर पे
किसी की टोपी पर किसी के जूते
कटे हाथ/फटी तोन्दें
ऐसा लगता- कि मांस के चीथडे
जनता से माफी मांग रहे हों...
अम्मा, पंजे में खूनी खद्दर!
और चोंच में मांस के लोथडे दाब कर
हाय..चील जैसे ही उडी
मैं तो डर गया...उठ बैठा...
देखा कि- सवेरा हो चुका था....
अम्मा! कहीं ऐसा तो नहीं कि -
कल रात पेशाब करके बिना हाथ धोये
मैं कई दिनों का भूखा सोया था
तू तो कहती है कि बेटा
सवेरे के सपने सच होते हैं
अम्मा! क्या मेरा ये सपना सच होगा...

सोमवार, जुलाई 18, 2011

मैं हूं इंसान खान, मैंने किये हैं धमाके

ठहरो...हिंदुस्तान की जांच एजेन्सियों
कौन था हमलों के पीछे...
इस खोजबीन में
क्यों अपना वक्त
जाया कर रही हो,
मुंबई में हुए धमाके
हमने किये हैं,
इससे पहले भी
भारत में
हमने कई जगहों पर
सफलतापूर्वक बम फोडे थे...
और इस बार
हम फिर हुए कामयाब...
तुम्हारी सरकार में
अगर है हिम्मत तो 
...दे मुझे फांसी
मुझे पता है कि 
हिंदुस्तान की सरकार
किसी भी कीमत पर
ऐसा कर नहीं सकती...
हमारे 23 भाइयों को
तुम्हारे कानून ने 
फांसी मुकर्रर कर दी..
लेकिन राजनेताओं का शुक्रिया
कि अभी तक नहीं हुई
किसी को भी फांसी..
जांच एजेन्सियों
मैं कहता हूं, तुम्हारी  मेहनत
बेकार ही जाएगी ..
तुम्हारे देश के नेताओं
में आतंक के खिलाफ
बोलने के अलावा 
कोई ताकत नहीं है...
हमारे कई आतंकवादी भाई
तुम्हारी सरकारों के कब्जे में हैं..
पहले उन्हें ही सजा देकर दिखाओ
बाद में हमें फांसी देना..
जाओ जांच एजेन्सियों
अपने परिवार को देखो..
और मुझे अगले बम धमाके की
तैयारी करने दो..
तुम्हारे नेता कहते हैं..कि
बीते छह माह से देश में
कोई भी घटना नहीं हुई..
मैं उनकी बात को
करता हूं समर्थन..
कि अगला धमाका हम
एक साल बाद ही करेंगे..
तब तक यदि हमारा कोई 
अन्य भाई सफल हो जाता है
किसी बडे धमाके को
अंजाम देने में..तो
उसके लिए आप जानो...
मैं तो बस इस बात से 
खुश हूं कि भारत में
हमारे किसी भी भाई को
नहीं है कोई खतरा
यदि वह पकडा भी जाता
है तो सरकार उसे देगी
पूरी कडी सुरक्षा..
किंतु पाक में तो 
अलकायदा के आका
भी हैं असुरक्षित...

गुरुवार, जुलाई 14, 2011

यहाँ तो होते रहेंगे धमाके..!

फिर मुंबई हो गयी आतंक की शिकार
सड़कों पर सन्नाटा
लोगों में दहशत
शहर के शिलालेख पर फिर
खिंच गयीं खौफ की लकीरें
सहम गया इस शहर का आसमान
डर गयी धरती..
कानाफूसी करने लगीं हवाएं
मीडिया के लिए ब्रेकिंग न्यूज़
सियासी दलों के लिए
नया मुद्दा...
आतंक से अघाए लोग
जब मजबूरन 
दर्दों की गाँठ पीठ पर लादकर
भूखे पेट में लगी आग
को बुझाने निकल पड़े
पानी (रोजी कमाने) की तलाश में
सत्ता के नेताओं ने 
फिर से किया
मुम्बईकरों के 
जज्बे को सलाम...
ठीक वैसे ही
जब इससे पहले 
आतंक के शेर ने मांस नोचा था
और उसी हाल में हम निकल पड़े थे
पेट की भूख लिए...
अब अगला धमाका कहाँ होगा,
...जहाँ भी होगा!
वो होगा हमारे ही देश का
होगा दिनरात दौड़ने वाला कोई शहर
बच्चे, बूढ़े, नौजवान होंगे 
बेगुनाही के शिकार..
उनके परिवारों में 
बच जायेंगे जो लोग
हमारे माननीय उन्हें
सांत्वना के साथ 
लाखों का मुआवजा भी दे जायेंगे...
लेकिन आतंकियों को 
पकड़ने के बावजूद
कसाब की तरह रखेंगे उन्हें सुरक्षित
...रो पड़ेंगा नन्हा आजाद
ये कहकर...
ओये काके...चल अपना काम कर
यहाँ तो होते रहेंगे
धमाके........!

रविवार, जुलाई 03, 2011

ज़माना आ गया रुसवाइयों तक तुम नहीं आए ।


बलवीर सिंह रंग को तो पढ़िए जरा...


ज़माना आ गया रुसवाइयों तक तुम नहीं आए ।
जवानी आ गई तनहाइयों तक तुम नहीं आए ।। 


धरा पर थम गई आँधी, गगन में काँपती बिजली,
घटाएँ आ गईं अमराइयों तक तुम नहीं आए । 


नदी के हाथ निर्झर की मिली पाती समंदर को,
सतह भी आ गई गहराइयों तक तुम नहीं आए । 


किसी को देखते ही आपका आभास होता है,
निगाहें आ गईं परछाइयों तक तुम नहीं आए । 


समापन हो गया नभ में सितारों की सभाओं का,
उदासी आ गई अंगड़ाइयों तक तुम नहीं आए । 


न शम्मा है न परवाने हैं ये क्या 'रंग' है महफ़िल,
कि मातम आ गया शहनाइयों तक तुम नहीं आए ।

शुक्रवार, जून 24, 2011

मेरा फतवा उनका सर कलम करने का...

मेरा भी फतवा उनका सर कलम करने का,
जिनकी हवेलियों ने
धूप रोक ली झोपडी की...
जिनकी हवस ने पूरा चाँद ढककर
रात और काली कर दी गरीब की...
मेरा भी फतवा उनका सर कलम करने का,
जिनकी वासनाओं ने हवाओं को
इस कदर बरगलाया -कि
आत्महत्याओं का तूफ़ान
थम नहीं रहा बस्ती में...
मेरा फतवा उनका सर कलम करने का
जो शर्म के नाम पर 
आदमी का 
सर कलम करने का फतवा देते हैं.
कुत्ता पालते हैं/आदमी मरते हैं....
मेरा फतवा उनका सर कलम करने का
जो अपने मांस के लोथड़े पर
सदन में खद्दर लपेटे हुए
कार्यालयों में गर्दन पर
साहबियत कि टाई ऐंठे हुए.
जिन्हें गरीब की बात पर भी
घिन आ जाती है....----अतुल कुशवाह 

शुक्रवार, जून 10, 2011

मेरे पीछे मत आओ..

आज भरी दोपहर
बीच चौराहे पर 
मैंने अपनी परछाइयों के
पैर पकड़कर
साफ़ कह दिया
कि मेरे पीछे-पीछे मत आओ
साथ ही चलना है
तो अंधेरों तक चलो
वर्ना बेहतर है कि
ये सफ़र मुझे 
अकेले ही पूरा करने दो....- अतुल 

रविवार, जून 05, 2011

नेताओं से अच्छे ये सूअर के बच्चे


मुझे इन नेताओं से अच्छे
ये सुअर के बच्चे लगे...
जो रोजाना मेरी गली तो घूम जाते हैं,
और अपने स्तर से गन्दगी खाकर
कुछ तो साफ़ कर जाते हैं...
लेकिन, वो कमबख्त
आएगा सिर्फ चुनाव के वक्त
बस, वोट मांगने...
और ये सफाई देने कि
मैं...सुअर से अच्छा हूँ और कुछ नहीं....- अतुल

गुरुवार, जून 02, 2011

किसी का मख़मली अहसास मुझको गुदगुदाता है



किसी का मख़मली अहसास मुझको गुदगुदाता है
ख़यालों में दुपट्टा रेशमी इक सरसराता है

ठिठुरती सर्द रातों में मेरे कानों को छूकर जब
हवा करती है सरगोशी बदन यह कांप जाता है

उसे देखा नहीं यों तो हक़ीक़त में कभी मैंने
मगर ख़्वाबों में आकर वो मुझे अकसर सताता है

नहीं उसकी कभी मैंने सुनी आवाज़ क्योंकि वो
लबों से कुछ नहीं कहता इशारे से बुलाता है

हज़ारों शम्स हो उठते हैं रौशन उस लम्हे जब वो
हसीं रुख़ पर गिरी ज़ुल्फ़ों को झटके से हटाता है

किसी गुज़रे ज़माने में धड़कना इसकी फ़ितरत थी
पर अब तो इश्क़ के नग़मे मेरा दिल गुनगुनाता है

कहा तू मान दीवाने दवा कुछ होश की कर ले
ख़याली दिलरुबा से इस क़दर क्यों दिल लगाता है !

गुरुवार, मई 26, 2011

तेरी सतरंगी यादों में खो जाता हूं...



तेरी सतरंगी यादों में खो जाता हूं...
जलते है दीए...तेरी आंखों के...
जब अंधेरा घेर लेता है मन को...
याद तुझे कर लेता हूं....
जल जाते है हजारों दीए...
उजालें सांसों मे भर लेता हूं....

गुजारे है संग तेरे...
कुछ दिन, कुछ पल, कुछ घडियां...
फूलों की तरह...सभी को पिरोकर..
एक माला बना लेता हूं....
मन मंदिर में बसाई है मैने...
एक सुन्दर मूरत तेरी..
उसी मूरत को...
अपनी बनाई माला पहनाता हूं....

तेरी सुनहरी यादों के बादल....
जब आसापास होते है मेरे...
हर रात को ऐ जानेमन...
मै अपने आप को...
दिन के उजाले में पाता हूं....
तुझे हंसती हुई देख कर..
खुश हो लेता हूं मै....
एक बिजली सी दौड जाती है...
मेरी रग रग में....
तब अपने आप को...
इस जहां का...शहंशाह मान लेता हूं...

तेरी यादों के गुलाबी बादल...
सुरमई शाम का संदेशा लाते है...
हम दोनों ने मिल कर गाए...
प्रेम तरानों को सुनाते है...
तब जैसे खो जाता हूं मै....
ढलते हुए सूरज की बाहों में....
बोझिल आंखों से जैसे तुम्हे तकता हूं....
तुम्हारे गेसूओं के घने साएं मे...
रात भर सो जाता हूं....

तेरी यादों के नीले बादल....
सावन की घटा बन जाते है....
छा जाते है मेरे चंचल मन पर...
नाचने लगता है मन मयूर....
प्रेम वर्षा की बूंदों से....
सूखे गले को गिला कर लेता हूं....
स्पर्श का मादक नशा...
जब रग रग में उतर जाता है मेरी...
दो जहां हासिल होने का सुख महसूस करता हूं...

तेरी यादों के पिले बादल...
पहुंचा देते है मुझे...
गलतफहमी के गहरे भंवर में....
जहां मै वृत्ताकार घुमता हुआ...
कभी उपर..कभी नीचे....
आता..जाता रहता हूं....
कभी डूबता हूं ..कभी तैरता हूं....
न जीता हूं..न मरता हूं....
इस पार या उस की आस लिए...
अपनी परिणीती का इंतजार करता हूं...

तेरी यादों के काले बादल...
जब जब छा जाते है...
सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है जानम...
धडकने रुक रुक सी जाती है दिल की....
इस जमीन से उठ कर आसमां पर...
चले जाने को चाह्ता है दिल...
तुझे ढूंढ्ने की चाहत न जाने क्यों..
और बढ जाती है....
और मै अपने आप को भूल जाता हूं....
जानता हूं..तू आसपास नही है,
फिरभी..
तेरा नाम ले ले कर....
पुकारता हुआ....
दूर दूर तक चला जाता हूं....

बुधवार, मई 25, 2011

इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और/ दुष्यंत कुमार


इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और
या इसमें रौशनी का करो इन्तज़ाम और

आँधी में सिर्फ़ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे
हमसे जुड़ा हुआ था था कोई एक नाम और

मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है
अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निज़ाम और

घुटनों पे रख के हाथ खड़े थे नमाज़ में
आ—जा रहे थे लोग ज़ेह्न में तमाम और

हमने भी पहली बार चखी तो बुरी लगी
कड़वी तुम्हें लगेगी मगर एक जाम और

हैराँ थे अपने अक्स पे घर के तमाम लोग
शीशा चटख़ गया तो हुआ एक काम और

उनका कहीं जहाँ में ठिकाना नहीं रहा
हमको तो मिल गया है अदब में मुकाम और.


सांसें भीग जाती हैं


पत्रकार और युवा कवि अलोक श्रीवास्तव जी कि ये गजल रास आ रही है...
तुम्हारे पास आता हूं तो सांसे भीग जाती हैं,
मुहब्बत इतनी मिलती है कि आंखें भीग जाती हैं।
तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बरसात जैसी है,
वो जब भी बात करता है तो बातें भीग जाती हैं।
तुम्हारी याद से दिल में उजाला होने लगता है,
तुम्हें जब गुनगुनाता हूं तो सांसें भीग जाती हैं।
ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है,
नए पत्तों की आमद से ही शाखें भीग जाती हैं।
तेरे एहसास की ख़ुशबू हमेशा ताज़ा रहती है,
तेरी रहमत की बारिश से मुरादें भीग जाती हैं।

मंगलवार, मई 24, 2011

लेकिन आग जलनी चाहिए..


दुष्यंत कुमार जी की कविता बहुत पसंद आयी, आप भी पढ़ें.   

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।


आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

ग़ालिब की शायरी


हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था 
आप आते थे मगर कोई अनागीर भी था
अगर आने में कुछ देर हुई है तो इसकी कोई न कोई वजह ज़रूर होगी। और वजह इसके सिवा और क्या हो सकती है के किसी रक़ीब ने तुम्हें रोक लिया होगा। आप तो वक़्त पर आना चाहते थे मगर रास्ते में रक़ीब मिल गया।

तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
उसमें कुछ शाएबा-ए-ख़ूबिए-तक़दीर भी था 

तुमसे मैं जो अपनी तबाही का शिकवा कर रहा हूँ, वो ठीक नहीं है। मेरी तबाही में मेरी तक़दीर का भी तो हाथ हो सकता है। ये ग़ालिब साहब का अन्दाज़ है के तक़दीर की बुराई को भी तक़दीर की ख़ूबी कह रहे हैं। बतौर तंज़ ऎसा कहा गया है। 

तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूँ
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़्चीर भी था

ऐसा लगता है तू मेरा पता भूल गया है। याद कर कभी तूने शिकार किया था और उसे अपने नख़्चीर (शिकार रखने का झोला) में रखा था। मैं वही शिकार हूँ जिसे तूने शिकार किया था। यानी एक ज़माना था जब हमारे रिश्ते बहुत अच्छे और क़रीबी थे। 

क़ैद में है तेरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद 
हाँ कुछ इक रंज गराँ बारी-ए-ज़ंजीर भी था 

मैं क़ैद में हूँ और यहाँ भी मुझे सिर्फ़ तेरी ज़ुल्फ़ें ही याद हैं। ज़ंजीर हल्की है या भारी इस पर कोई ध्यान नहीं है। जब मैं क़ैद में नया नया आया था तब ज़रूर ये रंज था के ज़ंजीर की तकलीफ़ बहुत सख़्त होगी लेकिन अब मुझे सिर्फ़ तेरी ज़ुल्फ़ें ही याद रहती हैं। 

बिजली इक कूंद गई आँखों के आगे तो क्या
बात करते के मैं लब तिश्ना-ए-तक़रीर भी था 

आपके दीदार से इक बिजली सी कून्द गई तो क्या हुआ, मैं तो इससे ख़ौफ़ज़दा नहीं हुआ। मैं आपके दीदार के साथ ही आपसे बात करने का भी आरज़ूमंद था। आपको मुझसे बात भी करना चाहिए थी
यूसुफ़ उसको कहूँ और कुछ न कहे ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था 

उसको यूसुफ़ कहना यानी उसे ग़ुलाम कहना। मैंने उसे ऐसा कहा।
 इससे वो मुझसे नाराज़ भी हो सकता था क्योंकि यूसुफ़ को एक ग़ुलाम
की तरह ही ज़ुलेख़ा ने मिस्र के बाज़ार से ख़रीदा था। वो चाहता तो
मेरी इस ख़ता की मुझे सज़ा दे सकता था। मेरी ख़ैर हुई के मैं सज़ा से
बच गया। 

हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही
आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी थ

हम तो मरने के लिए तैयार थे उसे पास आकर हमें क़त्ल करना चाहिए था। पास नहीं आना था 
तो न आता, उसके पास तरकश भी था, जिसमें कई तीर थे उसी में से किसी तीर से हमारा 
काम तमाम किया जा सकता था। मगर उसने ऐसा भी नहीं किया। इस तरह उसने हमारे
साथ बेरुख़ी का बरताव किया जो ठीक नहीं था। 

पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़ 
आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी थ

हमारे कांधों पर बिठाए फ़रिश्तों ने जो समझ में आया हमारे बारे में लिख दिया और
हम सज़ा के मुस्तहक़ ठहराए गए। फ़रिश्तों से पूछा जाए के जब वो हमारे आमाल
लिख रहे थे तब कोई आदमी बतौर गवाह वहाँ था या नहीं अगर नहीं तो फिर बग़ैर 
गवाह के सज़ा कैसी। 

रेख़ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब 
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी थ

ऎ ग़ालिब तुम अपने आप को उर्दू शायरी का अकेला उस्ताद न समझो। लोग कहते हैं के अगले 
ज़माने में एक और उस्ताद हुए हैं और उनका नाम मीर तक़ी मीर था। 

हुस्न ग़मज़े की कशाकश से छूटा मेरे बाद
बारे आराम से हैं एहले-जफ़ा मेरे बाद 

जब तक मैं ज़िन्दा रहा, मुझे लुभाने और तड़पाने के लिए हुस्न अपने नाज़-नख़रों पर ध्यान देने में
लगा रहा। अब जब के मैं नहीं रहा तो हुस्न को इस कशाकश से निजात मिल गई है। इस तरह मेरे
न रहने पर मुझ पर जफ़ा करने वालों को तो आराम मिल गया। मेरे लिए ये शुक्र का मक़ाम है। 

शम्आ बुझती है तो उस में से धुआँ उठता है
शोला-ए-इश्क़ सियह-पोश हुआ मेरे बाद 

जब शम्आ बुझती है तो उसमें से धुआँ उठता है, इसी तरह जब मेरी ज़िन्दगी की शम्आ
बुझी तो इश्क़ का शोला भी सियह पोश होकर मातम करता हुआ निकला। ये मेरी
आशिक़ी का मरतबा है के खुद इश्क़ मेरे लिए सोगवार है।

कौन होता है हरीफ-ए-मये-मर्द अफ़गने-इश्क़
है मुकरर्र लब-ए-साक़ी से सला मेरे बाद

जब मैं नही रहा तो साक़ी ने लगातार आवाज़ लगा कर कहा कोई है जो इस इश्क़ की शराब
को पी सके। लेकिन कोई सामने नहीं आया। किसी के सामने न आने पर साक़ी 
अफ़सोस करते हुए कहता है - इश्क़ की शराब मर्द अफ़गन की तरह है जिसके सामने
कोई नहीं आ सकता। वो तो ग़ालिब ही था जिसमें इतनी हिम्मत थी।

आए है बेकसीए इश्क़ पे रोना ग़ालिब 
किसके घर जाएगा सेलाब-ए-बला मेरे बाद 

इश्क़ की मुसीबतों को हँस-हँस कर सेहना हर एक के बस की बात नहीं। मेरे मरने के
बाद इश्क़ कितना बेबस और मजबूर है के उसके इस हाल पर मुझे रोना आ रहा है। 
अब इश्क़ किसके घर जाएगा, मेरे बाद ऎसा कोई आशिक़ नहीं जो सच्चे दिल से 
इश्क़ की मुसीबतों को क़ुबूल कर सके।

रविवार, मई 08, 2011

मगर ये शर्त है, तुझको भी याद आऊँ न मैं



ये चाहती है हवा उसको आजमाऊँ न मैं,
कोई चिराग़ कहीं भी कभी जलाऊँ न मैं


सुकूत साया रहे इस ज़मीन पर हरदम 
कोई सदा कोई फ़रियात लब पे लाऊँ न मैं


यूँ ही भटकता रहूँ उम्र भर उदास-उदास 
सुराग़ बिछड़े हुओं का कहीं भी पाऊँ न मैं 


सफ़र ये मेरा किसी तौर छोटा हो जाए 
वो मोड़ आये कि जी चाहे आगे जाऊँ न मैं


भुला तो दूँ तेरे कहने पे तुझको दिल से मैं 
मगर ये शर्त है, तुझको भी याद आऊँ न मैं

वो ऐसा क्या है जिसे देखने से डरता हूँ



तिरी गली से दबे पाँव क्यों गुज़रता हूँ 
वो ऐसा क्या है जिसे देखने से डरता हूँ 

किसी क्षितिज की ज़रूरत है मेरी आँखों को 
सो कुदरत आज नया आसमान करता हूँ 

उतारना है मुझे कर्ज़ कितने लोगों का 
ज़रा सुकून मिले तो हिसाब करता हूँ 

अजब नहीं कि किसी याद का गुहर मिल जाए 
गये दिनों के समन्दर में फिर उतरता हूँ 

बड़े जतन से बड़े बंदोबस्त से तुझको 
भुला रहा हूँ, मोहब्बत का दम भी भरता हूँ

शनिवार, मई 07, 2011

बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती



सिरफिरे लोग हमें दुश्मने जाँ कहते हैं 
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं

मुझे बस इसलिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह खुशग्वार लगती है

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती

किसी को घर मिला हिस्से में या दुकाँ आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती

ये ऐसा कर्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटू मेरी माँ सजदे में रहती है

खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी थीं गाँव से
बासी भी हो गई हैं तो लज्जत वही रही

बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
माँ सबसे कह रही है बेटा मज़े में है

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है.

                                 - मुनव्वर राना 

बुधवार, मई 04, 2011

ज़माने की है आदत...

मेरा अपना तजुर्बा है इसे सबको बता देना,
हिदायत से तो अच्छा है किसी को मशविरा देना.

अभी हम हैं हमारे बाद भी होगी हमारी बात,
कभी मुमकिन नहीं होता किसी को भी मिटा देना.

नई दुनिया बनानी है, नई दुनिया बनायेंगे,
सितम की उम्र छोटी है जरा उनको बता देना.

अगर कुछ भी जले अपना बहुत तकलीफ होती है,
बहुत आसान होता है किसी का घर जला देना.

मेरी हर बात पर कुछ देर तो वो चुप ही रहता है,
मुझे मुस्किल में रखता है फिर उसका मुस्कुरा देना.

अतुल अच्छा है अपनी बात को हम खुद ही निपटा लें,
ज़माने की है आदत सिर्फ शोलों को हवा देना..

बुधवार, अप्रैल 27, 2011

वो गली फिर दूसरी होगी..

नहीं लगता मुझे हालत पे कुछ बात भी होगी,
अभी तो रहनुमा झगड़ेंगे बैठक खत्म ये होगी.

कभी तब्दीलियाँ आयी न आएँगी व्यवस्था में 
कमाएगी नदी झोली समंदर की भरी होगी.

खबर मरने की जिसकी आज अखबारों में आयी है
हजारों बार वो मरने से पहले भी मरी होगी.

ये माना अब तलक तूने कई रातें गुजारी हैं,
मगर हर रात आने वाली फिर भी अजनबी होगी.

बड़े मजबूत दिलवाला है तू अब तक नहीं फिसला,
मगर दिल में किसी दिन बात ऐसी आ गई होगी.

निकलता देर से लेकिन पहुँच जाता है तू पहले
गुजरता है तू जिससे वो गली फिर दूसरी होगी..