रविवार, सितंबर 11, 2011

लाख बारिश हो गल नहीं सकता.....

लाख बारिश हो गल नहीं सकता
वो है पत्थर पिघल नहीं सकता

मुझसे कहता है मैं बदल जाऊं
खुद को लेकिन बदल नहीं सकता

मेरा चेहरा है रूह का चेहरा
 आइनों से बहल नहीं सकता

है तलब दिल को पूरे दरिया की 
देख क़तरा मचल नहीं सकता

दर्द ये तो बहुत है शर्मीला
दिल से बाहर निकल नहीं सकता

यूँ तो सहरा बहुत ही प्यासा  है
पर समंदर निगल नहीं सकता

गिर गया जो नज़र से अपनी ही
वो 'किरण' फिर संभल नहीं सकता- कविता'किरण'

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