मंगलवार, अक्तूबर 02, 2012

''अक्सर''

दोस्तो, जिंदगी कभी आदमीयत की रोजमर्रा से अजीरन भी होने लगती है, ऐसा मैंने महसूस किया है कभी। जहन में आप जैसा सोचते हैं, वैसा ही होने वाला होता है। मेरे साथ भी हुआ है कई बार ऐसा। ये कविता भी उन्हीं सच्चाई के समंदर से निकले हुए अल्फाज हैं...
समृद्ध अतीत के माथे पर
अक्सर खिंच जाती हैं लकीरें
चिंतित भविष्य की
फैसलों की फर्श पर
क्यूं अक्सर
बिखर जाते हैं
बदलाव के मोती
खुशियों के आंगन में
टंगे मुस्कुराते गुब्बारों
पर अक्सर कोई चलाता है
गमों की गोलियां
बेवक्त पर काम आने वाला वक्त
अक्सर बदल जाता है आदमी की तरह
जब मौज मौसम की लेने निकलें तो
थम जाती हैं सुहानी हवाएं अक्सर
समझ आती है जब तलक हमको
नासमझी के कई काम हो जाते हैं,
जब तलक ढूंढ़ पाता हूं
वहीं और तमाम खो जाते हैं
अक्सर हम ख्वाबों की मानिंद
जमीं की जद पार कर जाते हैं
ऐसा भी कभी होता है कि
गम जागते रहते हैं और
हम सो जाते हैं।। - अतुल कुशवाह

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