बुधवार, जुलाई 20, 2011

पेश हैं अब तक के समाचार...

पेश हैं अब तक के समाचार...
राजधानी के कमबख्त
सदन में
आदमी के अंग बेचने का
विधेयक पास करके
सुहागरात पर टैक्स
लगाना चाहते हैं...
महिला आरक्षण पर
सरकार ने अपनी नीतियां
स्पष्ट करते हुए आज
एक प्रेस वार्ता में कहा- कि
विकास चाहने वाली औरतें
अपना जिस्म बेंचकर
पूर्ण विकास कर सकती हैं...
आज सदन की कार्यवाही के दौरान
देश में भूख से मरने वालों पर
चर्चा होते ही
पूरा सदन ठहाकों से गूंज उठा....
और अंत में मुख्य समाचार एक बार फिर....- अतुल कुशवाह

मंगलवार, जुलाई 19, 2011

''गाँधी'' तुम ग़लतफ़हमी में हो!

- अतुल कुशवाह 
''गांधी'' तुम्हारा अहिंसा का पाठ
कृष्ण अगर मानते-तो
महाभारत ही न हो पाती
और धर्म पर अधर्म की
विजय हो जाती
''गांधी'' तुम्हारी अहिंसा की बात पर
राम-अगर चलते-तो
युद्ध रोककर
सीता-रावण को ही सौंपकर
तसल्ली कर लेते....
''गांधी'' तुम्हारी गलतफहमी है- कि
तुम्हारा अहिंसा का पाठ
दुनिया में पढा जा रहा है
गांधी सच तो ये है कि 
तुम्हारा अहिंसा का प्रचार
सिर्फ वे लोग कर रहे हैं
जिन्हें खौफ है कि
भूखी-खूंख्वार भीड
बदले की गरज से
अपने हक के लिये कहीं एक दिन
उनकी देह पर आक्रमण न कर दे...

अम्मा! क्या मेरा ये सपना सच होगा...

- अतुल कुशवाह
अम्मा! कल भगत सिंह ने
चलती संसद में बम क्या फेंका-कि
माननीयों की लाशें इस कदर दिखीं-जैसे
अपनी तनख्वाह/भत्ता का
बढोत्तरी विधेयक की तरह
सारा पक्ष-विपक्ष
आपस में मिल गया हो...
किसी का पांव किसी के सर पे
किसी की टोपी पर किसी के जूते
कटे हाथ/फटी तोन्दें
ऐसा लगता- कि मांस के चीथडे
जनता से माफी मांग रहे हों...
अम्मा, पंजे में खूनी खद्दर!
और चोंच में मांस के लोथडे दाब कर
हाय..चील जैसे ही उडी
मैं तो डर गया...उठ बैठा...
देखा कि- सवेरा हो चुका था....
अम्मा! कहीं ऐसा तो नहीं कि -
कल रात पेशाब करके बिना हाथ धोये
मैं कई दिनों का भूखा सोया था
तू तो कहती है कि बेटा
सवेरे के सपने सच होते हैं
अम्मा! क्या मेरा ये सपना सच होगा...

सोमवार, जुलाई 18, 2011

मैं हूं इंसान खान, मैंने किये हैं धमाके

ठहरो...हिंदुस्तान की जांच एजेन्सियों
कौन था हमलों के पीछे...
इस खोजबीन में
क्यों अपना वक्त
जाया कर रही हो,
मुंबई में हुए धमाके
हमने किये हैं,
इससे पहले भी
भारत में
हमने कई जगहों पर
सफलतापूर्वक बम फोडे थे...
और इस बार
हम फिर हुए कामयाब...
तुम्हारी सरकार में
अगर है हिम्मत तो 
...दे मुझे फांसी
मुझे पता है कि 
हिंदुस्तान की सरकार
किसी भी कीमत पर
ऐसा कर नहीं सकती...
हमारे 23 भाइयों को
तुम्हारे कानून ने 
फांसी मुकर्रर कर दी..
लेकिन राजनेताओं का शुक्रिया
कि अभी तक नहीं हुई
किसी को भी फांसी..
जांच एजेन्सियों
मैं कहता हूं, तुम्हारी  मेहनत
बेकार ही जाएगी ..
तुम्हारे देश के नेताओं
में आतंक के खिलाफ
बोलने के अलावा 
कोई ताकत नहीं है...
हमारे कई आतंकवादी भाई
तुम्हारी सरकारों के कब्जे में हैं..
पहले उन्हें ही सजा देकर दिखाओ
बाद में हमें फांसी देना..
जाओ जांच एजेन्सियों
अपने परिवार को देखो..
और मुझे अगले बम धमाके की
तैयारी करने दो..
तुम्हारे नेता कहते हैं..कि
बीते छह माह से देश में
कोई भी घटना नहीं हुई..
मैं उनकी बात को
करता हूं समर्थन..
कि अगला धमाका हम
एक साल बाद ही करेंगे..
तब तक यदि हमारा कोई 
अन्य भाई सफल हो जाता है
किसी बडे धमाके को
अंजाम देने में..तो
उसके लिए आप जानो...
मैं तो बस इस बात से 
खुश हूं कि भारत में
हमारे किसी भी भाई को
नहीं है कोई खतरा
यदि वह पकडा भी जाता
है तो सरकार उसे देगी
पूरी कडी सुरक्षा..
किंतु पाक में तो 
अलकायदा के आका
भी हैं असुरक्षित...

गुरुवार, जुलाई 14, 2011

यहाँ तो होते रहेंगे धमाके..!

फिर मुंबई हो गयी आतंक की शिकार
सड़कों पर सन्नाटा
लोगों में दहशत
शहर के शिलालेख पर फिर
खिंच गयीं खौफ की लकीरें
सहम गया इस शहर का आसमान
डर गयी धरती..
कानाफूसी करने लगीं हवाएं
मीडिया के लिए ब्रेकिंग न्यूज़
सियासी दलों के लिए
नया मुद्दा...
आतंक से अघाए लोग
जब मजबूरन 
दर्दों की गाँठ पीठ पर लादकर
भूखे पेट में लगी आग
को बुझाने निकल पड़े
पानी (रोजी कमाने) की तलाश में
सत्ता के नेताओं ने 
फिर से किया
मुम्बईकरों के 
जज्बे को सलाम...
ठीक वैसे ही
जब इससे पहले 
आतंक के शेर ने मांस नोचा था
और उसी हाल में हम निकल पड़े थे
पेट की भूख लिए...
अब अगला धमाका कहाँ होगा,
...जहाँ भी होगा!
वो होगा हमारे ही देश का
होगा दिनरात दौड़ने वाला कोई शहर
बच्चे, बूढ़े, नौजवान होंगे 
बेगुनाही के शिकार..
उनके परिवारों में 
बच जायेंगे जो लोग
हमारे माननीय उन्हें
सांत्वना के साथ 
लाखों का मुआवजा भी दे जायेंगे...
लेकिन आतंकियों को 
पकड़ने के बावजूद
कसाब की तरह रखेंगे उन्हें सुरक्षित
...रो पड़ेंगा नन्हा आजाद
ये कहकर...
ओये काके...चल अपना काम कर
यहाँ तो होते रहेंगे
धमाके........!

रविवार, जुलाई 03, 2011

ज़माना आ गया रुसवाइयों तक तुम नहीं आए ।


बलवीर सिंह रंग को तो पढ़िए जरा...


ज़माना आ गया रुसवाइयों तक तुम नहीं आए ।
जवानी आ गई तनहाइयों तक तुम नहीं आए ।। 


धरा पर थम गई आँधी, गगन में काँपती बिजली,
घटाएँ आ गईं अमराइयों तक तुम नहीं आए । 


नदी के हाथ निर्झर की मिली पाती समंदर को,
सतह भी आ गई गहराइयों तक तुम नहीं आए । 


किसी को देखते ही आपका आभास होता है,
निगाहें आ गईं परछाइयों तक तुम नहीं आए । 


समापन हो गया नभ में सितारों की सभाओं का,
उदासी आ गई अंगड़ाइयों तक तुम नहीं आए । 


न शम्मा है न परवाने हैं ये क्या 'रंग' है महफ़िल,
कि मातम आ गया शहनाइयों तक तुम नहीं आए ।