रविवार, मई 08, 2011

मगर ये शर्त है, तुझको भी याद आऊँ न मैं



ये चाहती है हवा उसको आजमाऊँ न मैं,
कोई चिराग़ कहीं भी कभी जलाऊँ न मैं


सुकूत साया रहे इस ज़मीन पर हरदम 
कोई सदा कोई फ़रियात लब पे लाऊँ न मैं


यूँ ही भटकता रहूँ उम्र भर उदास-उदास 
सुराग़ बिछड़े हुओं का कहीं भी पाऊँ न मैं 


सफ़र ये मेरा किसी तौर छोटा हो जाए 
वो मोड़ आये कि जी चाहे आगे जाऊँ न मैं


भुला तो दूँ तेरे कहने पे तुझको दिल से मैं 
मगर ये शर्त है, तुझको भी याद आऊँ न मैं

3 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय श्रीअतुलजी,

    " तुझको भी याद आऊँ न मैं"

    अद्भुत रचना, आप को ढ़ेरों बधाई।

    मार्कण्ड दवे।
    http://mktvfilms.blogspot.com

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  2. जिंदगी के शब्दशः अह्साशों को अभिव्यक्त करने की कोशिश को असीशने के लिए आभार..Sadar Atul

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  3. भुला तो दूँ तेरे कहने पे तुझको दिल से मैं
    मगर ये शर्त है, तुझको भी याद आऊँ न मैं

    bahut khoob.atulji.

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