मंगलवार, मई 24, 2011

ग़ालिब की शायरी


हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था 
आप आते थे मगर कोई अनागीर भी था
अगर आने में कुछ देर हुई है तो इसकी कोई न कोई वजह ज़रूर होगी। और वजह इसके सिवा और क्या हो सकती है के किसी रक़ीब ने तुम्हें रोक लिया होगा। आप तो वक़्त पर आना चाहते थे मगर रास्ते में रक़ीब मिल गया।

तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
उसमें कुछ शाएबा-ए-ख़ूबिए-तक़दीर भी था 

तुमसे मैं जो अपनी तबाही का शिकवा कर रहा हूँ, वो ठीक नहीं है। मेरी तबाही में मेरी तक़दीर का भी तो हाथ हो सकता है। ये ग़ालिब साहब का अन्दाज़ है के तक़दीर की बुराई को भी तक़दीर की ख़ूबी कह रहे हैं। बतौर तंज़ ऎसा कहा गया है। 

तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूँ
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़्चीर भी था

ऐसा लगता है तू मेरा पता भूल गया है। याद कर कभी तूने शिकार किया था और उसे अपने नख़्चीर (शिकार रखने का झोला) में रखा था। मैं वही शिकार हूँ जिसे तूने शिकार किया था। यानी एक ज़माना था जब हमारे रिश्ते बहुत अच्छे और क़रीबी थे। 

क़ैद में है तेरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद 
हाँ कुछ इक रंज गराँ बारी-ए-ज़ंजीर भी था 

मैं क़ैद में हूँ और यहाँ भी मुझे सिर्फ़ तेरी ज़ुल्फ़ें ही याद हैं। ज़ंजीर हल्की है या भारी इस पर कोई ध्यान नहीं है। जब मैं क़ैद में नया नया आया था तब ज़रूर ये रंज था के ज़ंजीर की तकलीफ़ बहुत सख़्त होगी लेकिन अब मुझे सिर्फ़ तेरी ज़ुल्फ़ें ही याद रहती हैं। 

बिजली इक कूंद गई आँखों के आगे तो क्या
बात करते के मैं लब तिश्ना-ए-तक़रीर भी था 

आपके दीदार से इक बिजली सी कून्द गई तो क्या हुआ, मैं तो इससे ख़ौफ़ज़दा नहीं हुआ। मैं आपके दीदार के साथ ही आपसे बात करने का भी आरज़ूमंद था। आपको मुझसे बात भी करना चाहिए थी
यूसुफ़ उसको कहूँ और कुछ न कहे ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था 

उसको यूसुफ़ कहना यानी उसे ग़ुलाम कहना। मैंने उसे ऐसा कहा।
 इससे वो मुझसे नाराज़ भी हो सकता था क्योंकि यूसुफ़ को एक ग़ुलाम
की तरह ही ज़ुलेख़ा ने मिस्र के बाज़ार से ख़रीदा था। वो चाहता तो
मेरी इस ख़ता की मुझे सज़ा दे सकता था। मेरी ख़ैर हुई के मैं सज़ा से
बच गया। 

हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही
आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी थ

हम तो मरने के लिए तैयार थे उसे पास आकर हमें क़त्ल करना चाहिए था। पास नहीं आना था 
तो न आता, उसके पास तरकश भी था, जिसमें कई तीर थे उसी में से किसी तीर से हमारा 
काम तमाम किया जा सकता था। मगर उसने ऐसा भी नहीं किया। इस तरह उसने हमारे
साथ बेरुख़ी का बरताव किया जो ठीक नहीं था। 

पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़ 
आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी थ

हमारे कांधों पर बिठाए फ़रिश्तों ने जो समझ में आया हमारे बारे में लिख दिया और
हम सज़ा के मुस्तहक़ ठहराए गए। फ़रिश्तों से पूछा जाए के जब वो हमारे आमाल
लिख रहे थे तब कोई आदमी बतौर गवाह वहाँ था या नहीं अगर नहीं तो फिर बग़ैर 
गवाह के सज़ा कैसी। 

रेख़ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब 
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी थ

ऎ ग़ालिब तुम अपने आप को उर्दू शायरी का अकेला उस्ताद न समझो। लोग कहते हैं के अगले 
ज़माने में एक और उस्ताद हुए हैं और उनका नाम मीर तक़ी मीर था। 

हुस्न ग़मज़े की कशाकश से छूटा मेरे बाद
बारे आराम से हैं एहले-जफ़ा मेरे बाद 

जब तक मैं ज़िन्दा रहा, मुझे लुभाने और तड़पाने के लिए हुस्न अपने नाज़-नख़रों पर ध्यान देने में
लगा रहा। अब जब के मैं नहीं रहा तो हुस्न को इस कशाकश से निजात मिल गई है। इस तरह मेरे
न रहने पर मुझ पर जफ़ा करने वालों को तो आराम मिल गया। मेरे लिए ये शुक्र का मक़ाम है। 

शम्आ बुझती है तो उस में से धुआँ उठता है
शोला-ए-इश्क़ सियह-पोश हुआ मेरे बाद 

जब शम्आ बुझती है तो उसमें से धुआँ उठता है, इसी तरह जब मेरी ज़िन्दगी की शम्आ
बुझी तो इश्क़ का शोला भी सियह पोश होकर मातम करता हुआ निकला। ये मेरी
आशिक़ी का मरतबा है के खुद इश्क़ मेरे लिए सोगवार है।

कौन होता है हरीफ-ए-मये-मर्द अफ़गने-इश्क़
है मुकरर्र लब-ए-साक़ी से सला मेरे बाद

जब मैं नही रहा तो साक़ी ने लगातार आवाज़ लगा कर कहा कोई है जो इस इश्क़ की शराब
को पी सके। लेकिन कोई सामने नहीं आया। किसी के सामने न आने पर साक़ी 
अफ़सोस करते हुए कहता है - इश्क़ की शराब मर्द अफ़गन की तरह है जिसके सामने
कोई नहीं आ सकता। वो तो ग़ालिब ही था जिसमें इतनी हिम्मत थी।

आए है बेकसीए इश्क़ पे रोना ग़ालिब 
किसके घर जाएगा सेलाब-ए-बला मेरे बाद 

इश्क़ की मुसीबतों को हँस-हँस कर सेहना हर एक के बस की बात नहीं। मेरे मरने के
बाद इश्क़ कितना बेबस और मजबूर है के उसके इस हाल पर मुझे रोना आ रहा है। 
अब इश्क़ किसके घर जाएगा, मेरे बाद ऎसा कोई आशिक़ नहीं जो सच्चे दिल से 
इश्क़ की मुसीबतों को क़ुबूल कर सके।

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