रविवार, मई 27, 2012

भरी महफिल में तनहाई मुझे पहचान लेती है..

हमारी दर्द की चीखें भला अब कौन सुनता है,
ये बस्ती पत्थरों की हो गयी है आजकल लोगों।।
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यहां हर ओर लाखों लोग बेहद खूबसूरत हैं,
न जाने कौन है वो शख्श जिसकी हम जरूरत हैं।।
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अगर बादल तुम्हारा है तो ये धरती हमारी है,
वफ़ा की राह में हर पल मुहब्बत ही तो हारी है,
अगर तुम हो शहंशाहे हसीं खुशहाल मौसम तो,
जवां रुत की बहारें अंजुमन की सब हमारी हैं.
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सितारों रातभर किसको उजाला देते रहते हो,
अभी देखा नहीं है तुमने शायद इस जमीं का चांद।।
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न तो मैं शोर करता हूं ये फिर भी जान लेती है,
भरी महफिल में तनहाई मुझे पहचान लेती है।।
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तुम्हारे लब से जो टपका, न टपकेगा वो अंबर से,
तुम्हारी जुल्फ के बादल बरसते हैं बिना गरजे।।
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फिसल जाऊं तुम्हारे लब की इस बेचैन फिसलन पर,
रपटती हैं तेरी सांसें कभी मदहोशियों में जब।।
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बहुत ही जल्द देखोगे धमाके मेरी फितरत के
अभी तो लग्जिशों की शाम में साजिश रचाई है।।
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बहुत तन्हा हूं कोई रंग जमाया जाये
चलो फिर आज उसी रंज में आया जाये,
कहीं उदास दिखे गीत अगर महफिल में
खुशी का साज इसी शाम सजाया जाये।।- अतुल