-अतुल कन्नौजवी
इश्क़ ही काफ़ी है इक जान वार देने को
गुजरता वक्त है सबकुछ गुजार देने को
फरिश्ते सीढ़ियां लेकर छतों पे चढते रहे
फलक से चांद सितारे उतार देने को,
अजीब खेल है दुनिया बनाने वाले का
जिंदगी देता है इक रोज मार देने को
सुकून दे दिया रातों की नींद भी दे दी
बचा ही क्या है अब तुमको उधार देने को
मैं हूं पतझड कि परिंदों से गुजारिश है मेरी
मैं आ रहा हूं मौसमे बहार देने को,
हवा खिलाफ सही फिर भी नफरतों के बीच
कहीं से कोई तो आएगा प्यार देने को
मुझे लगा कि साथ उम्रभर निभाएगा
वो मेरे पास आया इंतजार देने को
हवा में हाथ उठाते रहे कई मुफ़लिस
दुआएं दिल से मुझे बार—बार देने को
छुअन तो छोडिए मेरी नज़र ही काफ़ी है
हुस्न को तेरे जादुई निखार देने को।।
बढ़िया ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंसादर आभार सर, प्रणाम 🙏
हटाएं