बुधवार, जनवरी 20, 2021

(गज़ल) भोर होते ही चमक उठता हूं खिल जाता हूं मैं

जब कभी देने उसे अपना ये दिल जाता हूं मैं
इक समंदर सा नदी से जाके मिल जाता हूं मैं

ज़िस्म अपनी रूह से फरियाद ये करने लगा
तेरे जाते ही इधर मिट्टी में मिल जाता हूं मैं

नफरतों की कैंचियां मुझ पर चलें कितनी मगर
वक्त वह दर्जी है जिसके हाथ सिल जाता हूं मैं

शाम होते ही अगर मुरझा गया तो क्या हुआ
भोर होते ही चमक उठता हूं खिल जाता हूं मैं

छांव में बैठा हुआ था, पेड़ ने मुझसे कहा
आरियों को देखकर अंदर से हिल जाता हूं मैं

जब कभी उसके खयालों में उलझकर खो गया
भीड़ में इक शख्श की आंखों में मिल जाता हूं मैं।।
                                           #अतुल कन्नौजवी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें