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यूसुफ़ उसको कहूँ और कुछ न कहे ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था
उसको यूसुफ़ कहना यानी उसे ग़ुलाम कहना। मैंने उसे ऐसा कहा।
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था
इससे वो मुझसे नाराज़ भी हो सकता था क्योंकि यूसुफ़ को एक ग़ुलाम
की तरह ही ज़ुलेख़ा ने मिस्र के बाज़ार से ख़रीदा था। वो चाहता तो
मेरी इस ख़ता की मुझे सज़ा दे सकता था। मेरी ख़ैर हुई के मैं सज़ा से
बच गया।
हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही
आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी थ
हम तो मरने के लिए तैयार थे उसे पास आकर हमें क़त्ल करना चाहिए था। पास नहीं आना था
हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही
आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी थ
हम तो मरने के लिए तैयार थे उसे पास आकर हमें क़त्ल करना चाहिए था। पास नहीं आना था
तो न आता, उसके पास तरकश भी था, जिसमें कई तीर थे उसी में से किसी तीर से हमारा
काम तमाम किया जा सकता था। मगर उसने ऐसा भी नहीं किया। इस तरह उसने हमारे
साथ बेरुख़ी का बरताव किया जो ठीक नहीं था।
पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़
आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था
हमारे कांधों पर बिठाए फ़रिश्तों ने जो समझ में आया हमारे बारे में लिख दिया और
पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़
आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था
हमारे कांधों पर बिठाए फ़रिश्तों ने जो समझ में आया हमारे बारे में लिख दिया और
हम सज़ा के मुस्तहक़ ठहराए गए। फ़रिश्तों से पूछा जाए के जब वो हमारे आमाल
लिख रहे थे तब कोई आदमी बतौर गवाह वहाँ था या नहीं अगर नहीं तो फिर बग़ैर
गवाह के सज़ा कैसी।
रेख़ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था
ऎ ग़ालिब तुम अपने आप को उर्दू शायरी का अकेला उस्ताद न समझो। लोग कहते हैं के अगले
रेख़ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था
ऎ ग़ालिब तुम अपने आप को उर्दू शायरी का अकेला उस्ताद न समझो। लोग कहते हैं के अगले
ज़माने में एक और उस्ताद हुए हैं और उनका नाम मीर तक़ी मीर था।
हुस्न ग़मज़े की कशाकश से छूटा मेरे बाद
बारे आराम से हैं एहले-जफ़ा मेरे बाद
जब तक मैं ज़िन्दा रहा, मुझे लुभाने और तड़पाने के लिए हुस्न अपने नाज़-नख़रों पर ध्यान देने में
हुस्न ग़मज़े की कशाकश से छूटा मेरे बाद
बारे आराम से हैं एहले-जफ़ा मेरे बाद
जब तक मैं ज़िन्दा रहा, मुझे लुभाने और तड़पाने के लिए हुस्न अपने नाज़-नख़रों पर ध्यान देने में
लगा रहा। अब जब के मैं नहीं रहा तो हुस्न को इस कशाकश से निजात मिल गई है। इस तरह मेरे
न रहने पर मुझ पर जफ़ा करने वालों को तो आराम मिल गया। मेरे लिए ये शुक्र का मक़ाम है।
शम्आ बुझती है तो उस में से धुआँ उठता है
शोला-ए-इश्क़ सियह-पोश हुआ मेरे बाद
जब शम्आ बुझती है तो उसमें से धुआँ उठता है, इसी तरह जब मेरी ज़िन्दगी की शम्आ
शम्आ बुझती है तो उस में से धुआँ उठता है
शोला-ए-इश्क़ सियह-पोश हुआ मेरे बाद
जब शम्आ बुझती है तो उसमें से धुआँ उठता है, इसी तरह जब मेरी ज़िन्दगी की शम्आ
बुझी तो इश्क़ का शोला भी सियह पोश होकर मातम करता हुआ निकला। ये मेरी
आशिक़ी का मरतबा है के खुद इश्क़ मेरे लिए सोगवार है।
कौन होता है हरीफ-ए-मये-मर्द अफ़गने-इश्क़
है मुकरर्र लब-ए-साक़ी से सला मेरे बाद
जब मैं नही रहा तो साक़ी ने लगातार आवाज़ लगा कर कहा कोई है जो इस इश्क़ की शराब
कौन होता है हरीफ-ए-मये-मर्द अफ़गने-इश्क़
है मुकरर्र लब-ए-साक़ी से सला मेरे बाद
जब मैं नही रहा तो साक़ी ने लगातार आवाज़ लगा कर कहा कोई है जो इस इश्क़ की शराब
को पी सके। लेकिन कोई सामने नहीं आया। किसी के सामने न आने पर साक़ी
अफ़सोस करते हुए कहता है - इश्क़ की शराब मर्द अफ़गन की तरह है जिसके सामने
कोई नहीं आ सकता। वो तो ग़ालिब ही था जिसमें इतनी हिम्मत थी।
आए है बेकसीए इश्क़ पे रोना ग़ालिब
किसके घर जाएगा सेलाब-ए-बला मेरे बाद
इश्क़ की मुसीबतों को हँस-हँस कर सेहना हर एक के बस की बात नहीं। मेरे मरने के
आए है बेकसीए इश्क़ पे रोना ग़ालिब
किसके घर जाएगा सेलाब-ए-बला मेरे बाद
इश्क़ की मुसीबतों को हँस-हँस कर सेहना हर एक के बस की बात नहीं। मेरे मरने के
बाद इश्क़ कितना बेबस और मजबूर है के उसके इस हाल पर मुझे रोना आ रहा है।
अब इश्क़ किसके घर जाएगा, मेरे बाद ऎसा कोई आशिक़ नहीं जो सच्चे दिल से
इश्क़ की मुसीबतों को क़ुबूल कर सके।
बहुत अच्छा लागा यह ब्लॉग पढ़के!
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