दुष्यंत कुमार जी की कविता बहुत पसंद आयी, आप भी पढ़ें.
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
बेहतरीन , गुनगुनाने लायक रचना ! बधाई भाई जी !
जवाब देंहटाएंआपने ब्लॉग पर आकार जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए आभारी हूं
जवाब देंहटाएंसदा लाजवाब है दुष्यंत कुमार जी की यह ग़ज़ल....
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