गुरुवार, जनवरी 21, 2021

नज्म|| चांद छत पर टहलता रहा रातभर

प्रतीक चित्र।  (साभार)
-अतुुुल कन्नौजवी
रात भी रफ्ता रफ्ता गुजरने को है, 
रौशनी आसमां से उतरने को है,
बैठने फिर लगीं तितलियां फूल पर, 
खुशबू—ए—गुल फजां में बिखरने को है
जैसे मौसम बदलने को हलचल हुई, 
था अजब सा नजारा कोई जादुई
देखकर दिल मचलता रहा रातभर, 
चांद छत पर टहलता रहा रातभर।।

मसअला इश्क का है जवानी का है, 
इक अधूरी—मुकम्मल कहानी का है
इस जमीं पर हर इक झील के होंठ पर 
जो भी कतरा है दरिया के पानी का है
कैसे रहता कोई किस तरह होश में,
न भी कहकर वो थी मेरी आगोश में
बेखबर खुद से हो इश्क करने लगे
डूबकर आरजू—ए—सरफरोश में
क्या हुआ जाने ऐसा अंधेरे में भी, 
इक दिया दिल में जलता रहा रातभर।।

देखकर दिल मचलता रहा रातभर, 
चांद छत पर टहलता रहा रातभर...

ऐसी तस्वीर भी जिसके ख्वाबों में हो, 
सुर्ख लब जैसे जुंबिश गुलाबों में हो
इतनी गर्मी तेरी गर्म सांसों में थी, 
यूं लगा ये बदन आफताबों में हो
कौन रहता है दिल में न जाने तेरे, 
मन में ऐसे सवालात आते रहे
नींद आई नहीं याद करके तुझे 
कैसे—कैसे खयालात आते रहे
हसरतों के समंदर में लहरें उठीं
थामकर दिल संभलता रहा रातभर।।

देखकर दिल मचलता रहा रातभर, 
चांद छत पर टहलता रहा रातभर...
सब तो अपने मकानों में सोते रहे, 
कोई नींदों में चलता रहा रातभर,
सिलसिला ऐसा चलता रहा रातभर...।।

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